14 Feb. 2013
==========================
==================================================
==========================
नई दिल्ली: एसपी सिंह ओबरॉय ने कहा है कि उन्होंने 54 लोगों को फांसी पर लटकने से बचाया है। ओबरॉय वे हस्ती हैं जिन्होंने 17 भारतीयों की सजा माफ करवाई थी। जिन्हें संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की एक कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई ।
उनका कहना है कि उन्होंने केवल इन्हीं 17 भारतीयों की जान नहीं बचाई बल्कि अभी तक 54 लोगों को फांसी पर लटकने से बचा चुके हैं इसके अलावा कुछ मामले विचाराधीन हैं।
जिनमें से 17 लोग वापस स्वदेश लौट आए हैं और अपने परिवार वालों से मिल रहे हैं। इनमें से 16 पंजाब राज्य से संबंधित हैं जबकि एक पड़ोसी राज्य हरियाणा का है।
दो साल पहले दुबई की एक अदालत ने 17 लोगों को इनमें से एक पाकिस्तानी मिस्री खान का था, को दोषी पाए जाने पर मौत की सज़ा का फरमान सुनाया गया था, जिन्हें एसपी सिंह ने दस लाख डॉलर (यानी लगभग 5.3 करोड़ रुपए) मिस्री खान के परिवार को दिए।
उनका कहना है कि जब मुझे इस बारे में अखबारों से पता चला, तो मैंने सोचा कि इन्हें बचाने का प्रयास करना चाहिए। मुझे पता चला कि अगर ब्लड मनी या मौत का मुआवज़ा पीडि़त परिवार को दे दिया जाए, तो वे उन्हें माफ कर सकता हैं। उन्हें बचाने का बस यही एक तरीका था।
मैंने मिस्री खान के परिवार से संपर्क साधा और जब यह जान गए कि ब्लड मनी देकर वे इन लोगों की जान बचा सकते हैं, तो इन्होंने इसे अपना मिशन बना लिया।
ओबरॉय बताते हैं, जब मैं दोषियों के परिवार वालों से मिला तो देखा कि इनमें से कुछ तो दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाते। मैंने उनका दुबई में आने का खर्च वहन किया, ताकि जेल और अदालत में वे अपने संबंधियों से मिल सकें।
ओबरॉय ने दुबई के अपने होटल में उनके रहने का भी इंतज़ाम किया। आखिर यह सब कुछ वे क्यों करते हैं? वे कहते हैं, यह कहना बहुत आसान है कि इंसानियत के नाते मैंने यह सब कुछ किया, लेकिन यह सवाल बड़ा मुश्किल है।
57 वर्षीय ओबरॉय पंजाब से नंगल में पैदा हुए और वहां पर उन्होंने एक इंजन मेकैनिक की ट्रेनिंग ली, लेकिन साल 1975 में वे जिंदगी में कुछ बड़ा करने के इरादे से वहां से बाहर चले आए। 1000 रुपए लेकर चले थे, उस समय उनके पिता ने उन्हें एक हज़ार रुपए दिए थे।
उनका कहना है कि उन्होंने केवल इन्हीं 17 भारतीयों की जान नहीं बचाई बल्कि अभी तक 54 लोगों को फांसी पर लटकने से बचा चुके हैं इसके अलावा कुछ मामले विचाराधीन हैं।
जिनमें से 17 लोग वापस स्वदेश लौट आए हैं और अपने परिवार वालों से मिल रहे हैं। इनमें से 16 पंजाब राज्य से संबंधित हैं जबकि एक पड़ोसी राज्य हरियाणा का है।
दो साल पहले दुबई की एक अदालत ने 17 लोगों को इनमें से एक पाकिस्तानी मिस्री खान का था, को दोषी पाए जाने पर मौत की सज़ा का फरमान सुनाया गया था, जिन्हें एसपी सिंह ने दस लाख डॉलर (यानी लगभग 5.3 करोड़ रुपए) मिस्री खान के परिवार को दिए।
उनका कहना है कि जब मुझे इस बारे में अखबारों से पता चला, तो मैंने सोचा कि इन्हें बचाने का प्रयास करना चाहिए। मुझे पता चला कि अगर ब्लड मनी या मौत का मुआवज़ा पीडि़त परिवार को दे दिया जाए, तो वे उन्हें माफ कर सकता हैं। उन्हें बचाने का बस यही एक तरीका था।
मैंने मिस्री खान के परिवार से संपर्क साधा और जब यह जान गए कि ब्लड मनी देकर वे इन लोगों की जान बचा सकते हैं, तो इन्होंने इसे अपना मिशन बना लिया।
ओबरॉय बताते हैं, जब मैं दोषियों के परिवार वालों से मिला तो देखा कि इनमें से कुछ तो दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाते। मैंने उनका दुबई में आने का खर्च वहन किया, ताकि जेल और अदालत में वे अपने संबंधियों से मिल सकें।
ओबरॉय ने दुबई के अपने होटल में उनके रहने का भी इंतज़ाम किया। आखिर यह सब कुछ वे क्यों करते हैं? वे कहते हैं, यह कहना बहुत आसान है कि इंसानियत के नाते मैंने यह सब कुछ किया, लेकिन यह सवाल बड़ा मुश्किल है।
57 वर्षीय ओबरॉय पंजाब से नंगल में पैदा हुए और वहां पर उन्होंने एक इंजन मेकैनिक की ट्रेनिंग ली, लेकिन साल 1975 में वे जिंदगी में कुछ बड़ा करने के इरादे से वहां से बाहर चले आए। 1000 रुपए लेकर चले थे, उस समय उनके पिता ने उन्हें एक हज़ार रुपए दिए थे।
=============================
जिनका 'शौक' बन गया है जान बचाना
13 फ़रवरी 2013 16:05 IST
एसपी सिंह ओबरॉय वो शख़्स हैं, जिन्होंने उन 17 भारतीयों को बचाया है जिन्हें संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की एक अदालत ने सज़ा-ए-मौत का आदेश दिया था.
लेकिन ओबरॉय बताते हैं कि उन्होंने केवल इन्हीं 17 लोगों की जान नहीं बचाई है. वे बताते हैं, ''अभी तक मैं 54 लोगों को मौत की सज़ा से बचाने में कामयाब रहा हूँ. इनके अलावा अभी कुछ और मामले चल भी रहे हैं.''
मंगलवार को यह 17 लोग वापस भारत पहुंच पाए और अपने अपने परिवारों से पास चले गए. इनमें से 16 पंजाब से जबकि एक हरियाणा से है.
साल 2010 में दुबई की एक अदालत ने इन 17 लोगों को एक पाकिस्तानी नागरिक मिस्री खान का दोषी पाते हुए मौत की सज़ा सुनाई थी. लेकिन इन्हें बचाने का ज़िम्मा उठाया एसपी सिंह ने.
इन लोगों को बचाने के लिए ओबरॉय ने दस लाख डॉलर (यानी लगभग 5.3 करोड़ रुपए) मिस्री खान के परिवार को दिए.
वे बताते हैं, ''मैंने इस मामले के बारे में अखबारों में पढ़ा था. जब मुझे पता चला कि यह बहुत गरीब हैं तो मैंने सोचा कि इन्हें बचाने का प्रयास करना चाहिए. मुझे पता चला कि अगर ब्लड मनी या दिया या मौत का मुआवज़ा पीड़ित के परिवार को दे दिया जाए तो वे उन्हें माफ कर सकता है. उन्हें बचाने का बस यही एक तरीका था.''
मिशन
इसके बाद उन्होंने मिस्री खान के परिवार से संपर्क साधा और जब यह जान गए कि ब्लड मनी दे कर वे इन लोगों की जान बचा सकते हैं तो इन्होंने इसे अपना मिशन बना लिया.
ओबरॉय बताते हैं, ''जब मैं दोषियों के परिवार वालों से मिला तो देखा कि इनमें से कुछ तो दिन में दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाते. मैंने उनके दुबई में आने का इंतज़ाम किया ताकि जेल में या अदालत में अपने संबंधियों से मिल सकें.''
ओबरॉय ने दुबई के अपने होटल में उनके रहने का भी इंतज़ाम किया.
आखिर यह सब कुछ वे क्यों करते हैं? वे कहते हैं, ''यह कहना बहुत आसान है कि इंसानियत के नाते मैंने यह सब कुछ किया. लेकिन यह सवाल बड़ा मुश्किल है.''
''जब कई साल पहले मैं सबसे पहले इन लोगों से मिला तो मैंने देखा कि इनमें से कुछ बेकसूर है. लेकिन इनके पास खुद को बचाने के कोई ज़रिया नहीं था. फिर मैंने सोचा कि किसी न किसी को तो इनकी मदद करनी ही चाहिए.''
'मसीहा का दर्जा'
एसपी सिंह की तमाम कोशिशों और पैसों के कारण जिन लोगों को नया जीवन मिला है वो इन्हें एक मसीहा का दर्जा देते हैं.
हाल में जो 17 लोग वापस आए हैं उनमें से एक 28 वर्षीय कुलदीप सिंह तो एसपी सिंह को भगवान से कम नहीं मानते.
उनका कहना है, ''वो हमारे लिए मसीहा बन के आए. हम तो सोच बैठे थे कि हमारी ज़िंदगी बस कुछ ही दिन की रह गई है.''
57 वर्षीय ओबरॉय पंजाब से नंगल में पैदा हुए और वहां पर उन्होंने एक इंजन मकैनिक की ट्रेनिंग की. लेकिन साल 1975 में वे जिंदगी में कुछ बड़ा करने के इरादे से वहां से बाहर चले आए.
1000 रुपए लेकर चले थे
उस समय उनके पिता ने उन्हें एक हज़ार रुपए दिए थे.
वहां से वे हिमाचल प्रदेश पहुंचे जहां पर मंडी ज़िले में उन्होंने पंदोह बांध पर मैकेनिक की नौकरी की और फिर उन्हें दुबई में कॉस्टेन टेलर वूदरो में नौकरी मिल गई.
साल 1981 में उन्होंने भारत आ कर अपने परिवार के साथ मिल कर व्यापार शुरू किया लेकिन फिर 1993 में वे दुबई चले गए जहां पर उन्होंने अपना बिज़नेस आरंभ किया.
आज वे एपेक्स ग्रुप ऑफ कंपनीज़ के चेयरमैन हैं जिसके प्रमुख कार्यों में निर्माण और होटल के कारोबार हैं.
पूछे जाने पर कि उनके खिलाफ बीच बीच में आयकर विभाग की जांच की खबरें भी आती रही हैं तो वो कहते हैं, ''मैंने कुछ गलत नहीं किया है. कोई भी इसमें जांच कर सकता है. कोई अगर यह आरोप लगाए कि मैंने कुछ लाख रुपए इधर उधर किए हैं तो उन्हें यह तो सोचना चाहिए कि मैं करोड़ों रुपए इस तरीके से दान करके कुछ लाख रुपए तो नहीं बचाऊंगा.''
==========================================
==========================
=======================
=================================
17 Indians death row UAE
=======================
=======================
=================================
17 Indians death row UAE
With the help from SP Singh Oberoi 17 Indians on death row in UAE return home
The men, 16 from Punjab and one from Haryana, arrived here in an Air India flight (AI 996) from Sharjah and immediately left for Amritsar,” airport sources said.
The men, 16 from Punjab and one from Haryana, arrived here in an Air India flight (AI 996) from Sharjah and immediately left for Amritsar,” airport sources said.
They were convicted of killing Pakistani national Misri Khan during a brawl over bootlegging in January, 2009. Two others were also injured in the clash.
The men, who had gone to the United Arab Emirates for jobs, spent nearly three years in Dubai jails after being sentenced to death in March, 2010.
They were later released by the Sharjah court after their relatives paid blood money (the money paid as compensation to the victim’s family) amounting to over Rs 5.5 crore which was paid to Khan’s family.
As per the Sharia law, a family member of the victim can pardon the accused if the latter pays blood money.
Dubai-based hotelier S P Singh Oberoi had led a campaign to save the men from the gallows and get them freed. He collected the money from various sources in India and abroad and then deposited it in the court to reach a compromise with the victim’s family.
After the death sentence was pronounced, the Indian government had appointed five lawyers to file an appeal on behalf of the 17 Indians.
After giving their consent to accept blood money, Misri Khan’s family had refused to accept it and said they wanted revenge.
However, the court and the Indian consulate with the help of Pakistan embassy officials persuaded the family of the deceased and the two injured persons to accept blood money and secured their release.
Proud of SP Singh Oberoi . Million salutes to SP Singh Oberoi who saved many lives by paying out 6 Crores from his pocket…
=======================
दान दधीचि दे गये
Posted On February - 16 - 2013
पहली नज़र में तो यह अविश्वसनीय-सा लगता है कि कोई शख्स परदेस में मौत के शिकंजे में फंसे भारतीयों की मदद के लिए करोड़ों रुपये खर्च दे। लेकिन दुबई में बसे भारतीय मूल के व्यवसायी एसपी सिंह ओबराय ऐसी ही जीवंत मिसाल बनकर उभरे हैं। एक पाकिस्तानी की हत्या के मामले में मौत की सज़ा पाने वाले पंजाब-हरियाणा के सत्रह युवकों को जीवन देने के लिए उन्होंने पांच करोड़ रुपये मृतक के परिजनों को दिये। उन्होंने सालों से संयुक्त अरब अमीरात की जेल में बंद युवकों को आज़ाद कराने की मुहिम चलाई। एक तरफ युवकों के अभावग्रस्त परिवारों को हर महीने आर्थिक सहायता भेजी तो दूसरी तरफ मृतक पाकिस्तानी के परिजनों से ब्लडमनी की सौदेबाजी की। संयुक्त अरब अमीरात के कानून के अनुसार यदि मृतक के परिजन चाहें तो पैसा लेकर हत्याभियुक्तों को माफ कर सकते हैं। लेकिन मृतक के परिजन मोटी रकम मांगते रहे। वे लगातार दबाव बनाते रहे कि सत्रह लोगों के बदले सत्रह करोड़। ओबराय ने भारतीय पंजाब के राजनेताओं के पाकिस्तानी संपर्कों का लाभ उठाकर रकम पांच करोड़ रुपये तक लाने में सफलता पाई। अपने देश में जहां सौ रुपये के लिए हत्या हो जाती हो, सड़क पर तड़पते लोगों को नजरअंदाज करके लोग आगे निकल जाते हों, उसी भारत का एक बेटा विदेश में अनजाने से भारतीय युवाओं को स्वदेश भिजवाने को तन-मन-धन से जुट जाता हो, तो यह बहुत बड़ी बात है। वह भी तब जबकि ओबराय कोई टाटा-बिरला नहीं है। लेकिन उनका मानना है कि सौ रुपये में से दस रुपये मेरे खर्च के लिए काफी हैं, शेष आम समाज की सेवा में। वास्तव में ओबराय दधीचि की उस पुरातन अनुकरणीय परंपरा के वाहक हैं जिन्होंने लोक कल्याण हेतु अपना शरीर तक दान दे दिया था। जैसा कि कवि डॉ. योगेंद्रनाथ शर्मा लिखते हैं :-
दान करे बस सूरमा, अमर रहे नित नाम,
दान दधीचि दे गये, परोपकार के काम।
आत्मकेंद्रित होती जीवन संस्कृति में आज ओबराय जैसे लोग एक ताजा हवा के झोंके की मानिंद आते हैं। सिर-आंखों पर बिठाये जा सकने वाले ऐसे लोगों से प्रेरणा लेकर लाखों में से एक भारतीय भी अगर समाज कल्याण को आगे आ जाये तो अभावग्रस्त समाज व मुसीबत के मारो की जीवनधारा बदल सकती है। समाज में गरीबी व अभाव इसलिए नहीं है कि संसाधनों का अभाव है बल्कि उनका वितरण न्यायसंगत नहीं होता। हम समाज के अंतिम व्यक्ति के दु:ख-दर्द को दरकिनार करके अपनी सात पीढिय़ों के भविष्य की चिंता करते हैं। आज संपन्नता के साथ संकीर्ण होती सोच निश्चय ही चिंता की बात है। अकबर इलाहाबादी समाज के संपन्न-समर्थ लोगों से दु:ख-दर्द में डूबे अभावग्रस्त समाज के कष्ट कम करने की नेक सलाह देते हुए लिखते हैं :-
अल्लाह ने दी है जो तुम्हें चांद-सी सूरत,
रौशन भी करो जाके सियहखाना किसी का।
विडंबना यह है कि समाज के अंतिम व्यक्ति की सेवा राजनीतिक-सामाजिक प्रपंचों की भेंट चढ़ गई है। गरीब के नाम पर राजनीति चमकाई जाती है। तमाम राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संगठन अभावग्रस्त समाज के नाम पर दुकानदारी कर रहे हैं। सुर्खियां बटोरने, पुरस्कार पाने तथा विदेशी अनुदान पाने की होड़ लगी है। गरीब का तो नहीं, गरीबी दूर करने वालों का भला होता है। यदि किसी संस्थान द्वारा ईमानदारी से यह कोशिश की जाये तो कोई कारण नहीं कि कुछ लोगों का भला न हो। कुछ लोग व संस्थाएं अच्छा काम कर भी रही हैं, लेकिन उनकी गिनती अंगुलियों पर हो सकती है। काश! देश के धन्ना-सेठ व उद्योगपति गांधीजी के न्यास सिद्धांत का अनुसरण करते। न्यास सिद्धांत वकालत करता है कि संपन्न तबके की संपत्ति अभावग्रस्त समाज की धरोहर है जिसे उनकी संपत्ति मानकर लोक कल्याण में योगदान देना चाहिए। आज जरूरत समाज के अंतिम व्यक्ति के उत्थान की है। जैसा कि शायर इकबाल लिखते भी हैं :-
नशा पिला के गिराना तो सबको आता है,
मजा तो जब है गिरतों को थाम ले साकी।
सही मायनों में दुनिया में कोई भी शख्स गरीबी व मुसीबतों के जाल में नहीं फंसना चाहता। देशकाल-परिस्थितियां यथा सूखा-बाढ़, प्राकृतिक आपदाएं, दुर्घटनाएं, पारिवारिक क्षति, औद्योगिक विस्थापन तथा बड़ी परियोजनाओं के चलते लोग गरीबी के कुचक्र में फंसते हैं। सामाजिक-जातीय अन्याय, राजनीतिक अशांति, युद्ध तथा संसाधनों का असमान वितरण गरीबी बढ़ाते हैं। ऐसे में सक्षम-संपन्न तबके का दायित्व ऐसे लोगों को उठाकर समाज की मुख्यधारा से जोडऩा होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो वे सेवा करने वालों के प्रति अहसानमंद रहेंगे। जैसा कि शायर प्रवीण अश्क लिखते हैं :-
मुहासिनों के खुदा समझते हैं,
हम पर अहसान सोचकर करना।
दु:ख की बात यह है कि संयुक्त परिवारों के बिखराव के बाद एकल परिवार संस्कृति ने हमारे सामाजिक सरोकारों को हाशिये पर ला दिया है। पैसा बढ़ा, घर बड़ा हुआ, सुख-सुविधाएं बढ़ीं, लेकिन दिल छोटा हो गया। हम समाज से कटने लगे, आत्मकेंद्रित हो चले। पहले लोग सराय, कुएं, बावड़ी, मंदिर, धर्मशालाएं तथा सार्वजनिक उपयोग की चौपालें बनाते थे। अब संपन्न लोग फार्म हाउस और तरणताल तथा आमोद-प्रमोद के केंद्र बनाते हैं। रिश्ते-नातों में भी खटास है। यह प्रकृति सामाजीकरण के लिए घातक प्रवृत्ति है। समाज के इन हालात पर तंज़ करते हुए डॉ. श्याम सखा ‘श्याम’ लिखते भी हैं :-
कोई काम आया कब मुसीबत में,
कहने को अपना खानदान भी था।
===========================
Punjabi Today
दान करे बस सूरमा, अमर रहे नित नाम,
दान दधीचि दे गये, परोपकार के काम।
आत्मकेंद्रित होती जीवन संस्कृति में आज ओबराय जैसे लोग एक ताजा हवा के झोंके की मानिंद आते हैं। सिर-आंखों पर बिठाये जा सकने वाले ऐसे लोगों से प्रेरणा लेकर लाखों में से एक भारतीय भी अगर समाज कल्याण को आगे आ जाये तो अभावग्रस्त समाज व मुसीबत के मारो की जीवनधारा बदल सकती है। समाज में गरीबी व अभाव इसलिए नहीं है कि संसाधनों का अभाव है बल्कि उनका वितरण न्यायसंगत नहीं होता। हम समाज के अंतिम व्यक्ति के दु:ख-दर्द को दरकिनार करके अपनी सात पीढिय़ों के भविष्य की चिंता करते हैं। आज संपन्नता के साथ संकीर्ण होती सोच निश्चय ही चिंता की बात है। अकबर इलाहाबादी समाज के संपन्न-समर्थ लोगों से दु:ख-दर्द में डूबे अभावग्रस्त समाज के कष्ट कम करने की नेक सलाह देते हुए लिखते हैं :-
अल्लाह ने दी है जो तुम्हें चांद-सी सूरत,
रौशन भी करो जाके सियहखाना किसी का।
विडंबना यह है कि समाज के अंतिम व्यक्ति की सेवा राजनीतिक-सामाजिक प्रपंचों की भेंट चढ़ गई है। गरीब के नाम पर राजनीति चमकाई जाती है। तमाम राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संगठन अभावग्रस्त समाज के नाम पर दुकानदारी कर रहे हैं। सुर्खियां बटोरने, पुरस्कार पाने तथा विदेशी अनुदान पाने की होड़ लगी है। गरीब का तो नहीं, गरीबी दूर करने वालों का भला होता है। यदि किसी संस्थान द्वारा ईमानदारी से यह कोशिश की जाये तो कोई कारण नहीं कि कुछ लोगों का भला न हो। कुछ लोग व संस्थाएं अच्छा काम कर भी रही हैं, लेकिन उनकी गिनती अंगुलियों पर हो सकती है। काश! देश के धन्ना-सेठ व उद्योगपति गांधीजी के न्यास सिद्धांत का अनुसरण करते। न्यास सिद्धांत वकालत करता है कि संपन्न तबके की संपत्ति अभावग्रस्त समाज की धरोहर है जिसे उनकी संपत्ति मानकर लोक कल्याण में योगदान देना चाहिए। आज जरूरत समाज के अंतिम व्यक्ति के उत्थान की है। जैसा कि शायर इकबाल लिखते भी हैं :-
नशा पिला के गिराना तो सबको आता है,
मजा तो जब है गिरतों को थाम ले साकी।
सही मायनों में दुनिया में कोई भी शख्स गरीबी व मुसीबतों के जाल में नहीं फंसना चाहता। देशकाल-परिस्थितियां यथा सूखा-बाढ़, प्राकृतिक आपदाएं, दुर्घटनाएं, पारिवारिक क्षति, औद्योगिक विस्थापन तथा बड़ी परियोजनाओं के चलते लोग गरीबी के कुचक्र में फंसते हैं। सामाजिक-जातीय अन्याय, राजनीतिक अशांति, युद्ध तथा संसाधनों का असमान वितरण गरीबी बढ़ाते हैं। ऐसे में सक्षम-संपन्न तबके का दायित्व ऐसे लोगों को उठाकर समाज की मुख्यधारा से जोडऩा होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो वे सेवा करने वालों के प्रति अहसानमंद रहेंगे। जैसा कि शायर प्रवीण अश्क लिखते हैं :-
मुहासिनों के खुदा समझते हैं,
हम पर अहसान सोचकर करना।
दु:ख की बात यह है कि संयुक्त परिवारों के बिखराव के बाद एकल परिवार संस्कृति ने हमारे सामाजिक सरोकारों को हाशिये पर ला दिया है। पैसा बढ़ा, घर बड़ा हुआ, सुख-सुविधाएं बढ़ीं, लेकिन दिल छोटा हो गया। हम समाज से कटने लगे, आत्मकेंद्रित हो चले। पहले लोग सराय, कुएं, बावड़ी, मंदिर, धर्मशालाएं तथा सार्वजनिक उपयोग की चौपालें बनाते थे। अब संपन्न लोग फार्म हाउस और तरणताल तथा आमोद-प्रमोद के केंद्र बनाते हैं। रिश्ते-नातों में भी खटास है। यह प्रकृति सामाजीकरण के लिए घातक प्रवृत्ति है। समाज के इन हालात पर तंज़ करते हुए डॉ. श्याम सखा ‘श्याम’ लिखते भी हैं :-
कोई काम आया कब मुसीबत में,
कहने को अपना खानदान भी था।
===========================
Punjabi Today
No comments:
Post a Comment